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कविता

यु़द्ध के आसार चढ़ते जा रहे हैं

कृष्ण कुमार


यु़द्ध के आसार चढ़ते जा रहे हैं।
चोट खाए सर्प ने फुंकार ली
चल पड़ा डसने स्वयं आतंक को।
अन्य देशों का सहारा साथ ले
साथ ले आतंकवादी डंक को।।
की बहुत कोशिश मिटाने की मगर,
उस चतुर के जाल बढ़ते जा रहे हैं।

गोलियों बारूद की बौछार से
एक छोटे राष्ट्र पर छाया अँधेरा।
हर तरफ लाशें नजर आने लगीं
देर से मुड़ कर लगा आया सबेरा।।
विश्व ने उसको सहारा तो दिया,
लग रहा वे युग गढ़ते जा रहे हैं।

अन्याय से आतंक बढ़ता जाएगा
शांति के आसार मिटते जाएँगे।
युद्ध से किसको मिला आराम कब
लग रहा बापू पुनः अब आएँगे।।
समय की आवाज को सुन लो जरा,
रोक लो उनको जो कुढ़ते जा रहे हैं।


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